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विकास को पसीने से गढ़ने वाले बेबस मजदूर का रूदन-क्रंदन सुनकर प्रकृति का जर्रा-जर्रा रोया होगा… मजदूरों की बेबसी, लाचारी, भूख से जंग पर मार्मिक लेख वरिष्ठ पत्रकार, थिंकर्स राजेश शर्मा की कलम से…

राजेश शर्मा वरिष्ठ पत्रकार, विचारक
98938 77004, 90094 77004


“पेट की भूख मन को गुनाहगार बना देती हैं,
बाग के बाग को बीमार बना देती हैं।”

मेट्रो ट्रेन से बुलेट ट्रेन तक के निर्माण का सफर… ऊँची-ऊँची अट्टालिकाएं, गगनचुंबी इमारतें, पॉवर से सुपर पॉवर की और बढ़ते कदम… धरती को स्वर्ग सा, जन्नत सा स्वरूप देने वाले हाथ…आज अगर बेबस है… लाचार है तो यह पंक्तिया दर्द बयां करती हैं।

देश के दिल दिल्ली से मायावी नगरी मुंबई को अपने पसीने से सींचने वाला…. “मजदूर” । विकास के नींव का पत्थर “मजदूर”। अर्थव्यस्था को गति देने वाला “मजदूर”।  बेबसी ऐसी कि मन सिहर उठे… हालात का ऐसा मंजर कि जिसने भी देखा कंपकपा उठा….। क्या विकास को पटरी पर लाने वाला… देश की अर्थव्यवस्था के माईलस्टोन उद्योगों की धड़कन “मजदूर” के मौजूं हालात व्यवस्था पर सवालियां निशान नही छोड़ रहें?

42 डिग्री की तपिश और उस पर पेट की भूख… जिस्म पर चंद कपड़े मानो खुले आसमान से प्रतिस्पर्धा कर कह रहें हो कि रोटी और माटी की चाहत है सबसे बड़ी…।

मानों पैरों के छाले कह रहें हो कि राह कठिन हैं… निर्झर होता शरीर, डबडबाती आंखे, व्याकुल होता मन पर आँखों में चमक है माटी तक पहुँचने की। ये आंखो की चमक हजारों किलोमीटर के पैदल सफर पर भारी है… कंधे पर विरासत (बच्चे) उठाएं वो मां अपने सपनो को.. इन महानगरों, इन ऊँची-ऊँची ईमारतों से यही कह रही हो कि ये मायावी दुनिया, ये तथाकथित बड़े लोग… आपदा के इस काल में अपने हाल पर ऐसे ही छोड़ देंगे ऐसा मंजर सपने में भी नही सोचा था.. पर यह सच है…

 कई-कई घंटों की प्यास… कई-कई दिनों की भूख… कई हजार किलोमीटर का सफर… सफर में कोई हमदर्द मिला तो ठीक… ये बेबसी, ये मजबूरी, न्यू इंडिया के नीति नियंताओ से सवाल दर सवाल पूछ रहें हैं। मौन ही सही पर ये डबडबाती आंखे… विकास को हाड़तोड़ पसीने से सींचने वाले (मजदूर) विकास के पैरोकार… अर्थशास्त्रियों से पूछ रहें है कि भूख का अर्थशास्त्र क्या हैं..?

मजदूर का मौन, उसकी पीड़ा को भले ही बयां न कर रहा हो पर उमड़ता-घुमड़ता मजदूरों का सैलाब, पटरियों के सहारे रोटी और माटी तक पहुँचने की चाहत शायद बहुत कुछ बयां कर रहा है…

नीति निर्माताओं और क्रियान्वयनकर्ताओं की नजर में बहुत देर से आया “मजदूर” शायद यही कह रहा हैं कि मेरी नियति ही है कि मै मजदूर हूं।

 विश्व के अजूबो में से एक पेरिस का ऐफिल टावर, आगरा का ताजमहल और बुर्ज खलीफा भी आंसू बहा रही होगा कि मुझे शक्ल देने वाला, वैभव और आकार देने वाला नक्काश (मजदूर) आज अपने हालातों पर गमजदा है…

ये सच है कि आपदा और संकट से समूची मानवता कराह रही हैं… पर हमारे अपने… हमें बेहतर भविष्य देने वाले… देश की अर्थव्यवस्था को रफ्तार देने वाले… देश की GDP में अपने श्रम से योगदान देने वाले… नई सभ्यता और नई दुनिया को गढ़ने वाले… मिशन चंद्र से चंद्रयान तक के सफर में अपना श्रम देने वाले… औद्योगिक क्रांति से कार्पोरेट वर्ल्ड को नई आभा, नई चमक देने वाले… समाज और सभ्यता को गढ़ने वाले ये हाथ (मजदूर) अगर मजबूर है तो व्यवस्था पर प्रश्न उठना स्वाभाविक है।

आज के हालातों पर तो यही कहां जा सकता हैं कि “विकास को पसीने से गढ़ने वाले ‘बेबस मजदूर’ का रूदन और क्रंदन सुनकर प्रकृति का जर्रा-जर्रा रोया होगा।”

लेखक राजेश शर्मा का परिचय
वर्तमान में संपूर्ण विश्व कोरोना वायरस से जंग लड रहा है। जंग में मानवता के कई ऐसे प्रहरी है जो जंग से मानव जाति को उबारने के लिए प्रण और प्राण से जुटे है। इस समसामयिक एवं विश्वव्यापी ज्वलंत समस्या पर तीक्ष्ण दृष्टि डालता आलेख मप्र की राजा भोज की ऐतिहासिक नगरी धार के वरिष्ठ पत्रकार, लेखक, विचारक राजेश शर्मा ने लिखा है। लेखक राजेश शर्मा की ख्याति राज्य स्तरीय अधिमान्य पत्रकार मप्र शासन होकर लेखक, विचारक एवं प्रशासनिक परीक्षा के एक्सपर्ट के रूप में है। आपके मार्गदर्शन में कई युवा प्रशासनिक अधिकारी के पद पर कार्यरत है। आपने पीएससी परीक्षा एवं पत्रकारिता पर कई पुस्तकों की रचना की है। आप प्रदेश शासन की इंदौर संभाग स्तरीय पत्रकार अधिमान्यता समिति के सदस्य रहे है साथ ही पत्रकारिता की सर्वोच्च डिग्री एमजे में देवी अहिल्या विश्वविद्यालय इंदौर से टाॅपर रहे है।

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